‘भारतीय ज्ञान परंपरा विभाजित नहीं’, IGNC में गुरुपूर्णिमा पर आयोजित कार्यक्रम में बोले प्रो. रजनीश

नई दिल्ली। भारतीय संस्कृति में गुरु को विशेष स्थान दिया गया है और जीवन में गुरु के महत्त्व को समझने तथा उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का एक महत्त्वपूर्ण अवसर है गुरु पूर्णिमा. यह सुखद संयोग है कि इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र का कला कोश विभाग गुरु पूर्णिमा के अवसर पर अपना प्रतिष्ठा दिवस मनाता है. इस वर्ष कला कोश विभाग ने गुरु पूर्णिमा की पूर्व संध्या पर प्रतिष्ठा दिवस का आयोजन किया.

कार्यक्रम में मुख्य वक्ता जेएनयू के संस्कृत एवं प्राच्यविद्या अध्ययन संस्थान के आचार्य प्रो. रजनीश कुमार मिश्रा थे. कार्यक्रम की अध्यक्षता आईजीएनसीए के अध्यक्ष राम बहादुर राय ने की. आईजीएनसीए के सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी, निदेशक (प्रशासन) डॉ. प्रियंका मिश्रा और कला कोश के विभागाध्यक्ष प्रो. सुधीर लाल भी इस अवसर पर उपस्थित थे.

कार्यक्रम के दौरान, आईजीएनसीए की यूजीसी से मान्यता प्राप्त अर्धवार्षिक पत्रिका ‘कला कल्प’ के गुरु पूर्णिमा अंक का लोकार्पण किया गया. इसके साथ ही, कला कोश द्वारा तैयार नौ महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का भी लोकार्पण किया गया. कार्यक्रम में भगवान महाकाल की नगरी उज्जैन के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्त्व पर आधारित फिल्म ‘उज्जैन: द एबोड ऑफ महाकाल’ का प्रदर्शन भी किया गया.

इस अवसर पर मुख्य वक्ता प्रो. रजनीश कुमार ने कहा कि भारत ज्ञान केन्द्रित संस्कृति है. यह आनंदमूलक संस्कृति है. उन्होंने कहा कि भारतीय ज्ञान परम्परा विभाजित (डाइकॉटमिक) नहीं है. विरोधी युग्मों में चिंतन करना भारतीय परम्परा नहीं है. हम ऊंच-नीच का विभेद नहीं करते. हमारे शास्त्र विचारों के हैं, विचारधारा के नहीं. भारतीय संस्कृति गुरु-शिष्य परम्परा द्वारा संरक्षित हैं. हमारे यहां कोई भी बात परम्परा से विछिन्न होकर, कट कर नहीं कही गई है, नहीं कही जाती है. यदि कही भी जाएगी, तो कालांतर में वह लुप्त हो जाएगी. उन्होंने शास्त्रों के अनुसार गुरु की विशेषता बताते हुए कहा कि जो शिव तत्त्व को जानने वाला है, शांत है, जितेन्द्रिय है, सत्त्ववान है, निष्कंप है, यानी जिसमें जरा भी विचलन नहीं है और जिसमें शिव शास्त्रों का अनुभव है, वह गुरु है.

अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में रामबहादुर राय ने कहा कि गीता में भगवान कृष्ण जिस स्पृहा रहित अवस्था का ज्ञान दे रहे हैं, वह भी गुरु की महिमा का ज्ञान है. गुरु सिखाता है और वह एक धागा भी देता है, जो धागा है, वह कर्म का मंत्र भी देता है. व्यक्ति को उस धागे में कर्म को विशुद्ध बुद्धि से पिरोना पड़ता है. यही साधना है. व्यक्ति अगर तैयार है, तो गुरु को खोजना नहीं पड़ता, गुरु खुद आपको खोज लेता है. प्रश्न यह है कि क्या हम सचमुच गुरु को खोजना चाहते हैं! गुरु पूर्णिमा इस शाश्वत प्रश्न को हमारे सामने उपस्थित कर देता है. सोचने की खुराक देता है। गुरु के योग्य बनकर ही हम योग्य गुरु को प्राप्त कर सकते हैं. गुरु पूर्णिमा का भाव असीम है और गुरु का भाव आकाश की तरह है. आप केवल आकाश को देखते रहें, आपको गुरु तत्त्व मिल जाएगा. गुरु खंडित नहीं होता और गुरु पूर्णिमा के दिन हम उस अखंड गुरु का ध्यान करते हैं. जिसका अंग्रेजी में रूपांतरण असंभव है, वही गुरु परम्परा है.

डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने कहा, आज जिन पुस्तकों का लोकार्पण किया गया है, 100-150 वर्ष बाद वे महत्त्वपूर्ण दस्तावेज होंगी. समय बहुत तेजी से बदल रहा है, और इसीलिए परम्पराओं की अपनी व्याख्या भी बदल रही है, संस्कारों की व्याख्या भी बदल रही है. कई लोग संस्कारों और परम्पराओं के बीच में आवश्यकता का प्रश्न भी उठा लेते हैं. तब हमें निश्चित रूप से समझ में आता है कि इन तमाम शास्त्रीय ग्रंथों की आवश्यकता क्यों है. क्योंकि, जब कभी आपको संदर्भ विकसित करना है, संदर्भ के माध्यम से कोई बात पुष्ट करनी है, तो निश्चित तौर पर आपको ऐसे ग्रंथों की आवश्यकता पड़ती है. नई पीढ़ी का निर्माण बहुत आवश्यक है, क्योंकि जो काम हम कर रहे हैं, उसके लिए हमारे पास नई पीढ़ी तैयार होनी चाहिए. कार्यक्रम के प्रारम्भ में कला प्रो. सुधीर लाल ने कोश विभाग के एक वर्ष की उपलब्धियों को सबके सामने रखा. कला कोश में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. योगेश शर्मा ने कार्यक्रम का विद्वतापूर्ण संचालन किया.

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